दीवाली
त्यौहार तो सारे ही अच्छे होते हैं लेकिन दीवाली की कुछ अलग ही बात है। जैसे दीवाली बाकी सब त्यौहारों का बड़ा भाई हो। होली की तरह लाल पीला नही होना है, रक्षाबंधन की तरह कन्याओं से छिपना नही है और मकर संक्रांति की तरह सिर्फ खिचड़ी और रेवड़ी ही नहीं ठूसनी है। इसमे तो नए कपड़े पहनने हैं, बहुत सारी मिठाई खानी है और पटाखे फोड़ने हैं। जैसे त्यौहारो को शिष्टता सिखाने आयी हो दीवाली।एक तो ये त्यौहार आता भी अकेला नहीं है, दो चार यार दोस्तों को साथ लाता है। धनतेरस से शुरू होते हैं इसके दोस्त और भाई दूज तक आते हैं। हालांकि बच्चों की दीवाली तो महीने भर पहले से शुरू हो जाती है वो तो सुबह शाम बस ठाये ठाये करते रहते हैं। चाहे ये ठाये ठाये कितनी भी कष्टकर क्यों न हो, होली के गुब्बारों से तो ज्यादा ही सुखमयी होती है। हाँ लेकिन गली के कुत्तों का और बंदरों का नाक में दम हो जाता है। घर के बड़े बच्चों की ड्यूटी झालर लगाने में लगा दी जाती है। और वो भी पेचकस प्लास इतनी शिद्दत से चला रहे होते हैं मानो झालर लगा नही रहे हैं बल्कि झालर बना रहे हैं। सबसे बड़ा पहाड़ लेकिन दीवाली पर बस दो ही लोग तोड़ रहे होते हैं। मम्मी-पापा की...